કાલ્પનિક દુનિયામાંથી વસ્તવિકતાની ધરતી પર રૂમઝુમ ચાલે ચાલતી મારી કવિતા નવોઢા બની શરમાય છે....
રવિવાર, 27 સપ્ટેમ્બર, 2015
मास्टरजी पू्छे आज बडी देर से हैं आये...?
हां , हु गुमशुदा जिसने पाला-पोसा इसी जन्म में ही छोड चले हैं अचानक मास्टरजी क्या करुं?
सांस हैं फूली, एक ही झटके मे पंखी का आशियाना बिखर गया...हा, मास्टरजी आज मै देर से हुं आया...
गया था लेने दवाईयां पर उससे पेहले वो चल बसी...पिताजी ने देखते ही मेरे सामने दम तोड दिया
और मैं अवाक खडा...हाथ से ना छूटी दवाईयां पर हाथ मे ही फूट गई शींशियां..
देखीये ना मास्टरजी लहु बेहता रहा पर मैं समजा नहीं क्युं ? और हां, देदो ना वजूद अब मेरी सांसो को मास्टरजी....
हां मैं आज बडी देर से हुं आया...!!
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