સોમવાર, 21 ઑક્ટોબર, 2013

तेजी से बाईक ना चलाये कोई डर जाते है दादाजी


तेजीसे भागी बाईक जैसे कोई हिरन हैं भागा
लिखवा दु जाके रपट दादाजी आया हुं भागा भागा
विसल बजाकर किसी तरहा से चुंहे ने 'बस' रुकवाई
ठीक था तब रुकती भी थी बोले "सोरी" दादाजी
ना भालू ना शेर बंध पडे रेहते थे थाने में बोले दादाजी
कम्प्युटरपे बडे मजें से टाईप कर रही थी चिडियां रानी
डर के मारे बिलमें घुस गई जाके वीर बहादुर चुहिया रानी
---रेखा शुक्ला

कब खिलौना हो गई जिंदगी...!!

ना गोबर मिट्टीका चुल्हा बस घर साफ धूला
आम नीम की डाली पर अब नहीं मिलता झुला
मौसम सिरफिरा पागल वक्त भी लंगडा लूला
गुडियां गुड्डु जानते नहीं हैं क्या होता है खेलना
गर जिंदगी होती बसमे हुम नदी कंधे पे ले आते ना
कुद्कुद चिल्लाते सभी जनोकां परिचय करवाते ना 
---रेखा शुक्ला 

दिवाली ! दिवाली !


घरमें सबको अरछी लगती थी खीर-पुरियां
और गरम पकोडें हां खट्टी-मीठी चटनी थी
दादी बनाती मेह्सुब और किश्मिशवाले लड्डु
घुघरा-मिठाई और चेवडा भी ...!!!
दर्जी घरमें बैठके करता था सिलाई....!!!
नयें कपडें और फटाके..रोज मिलती मिठाई...!!!
घंटा बजाते पुजारी केहता"जागो" सबरस देके जाता....!
मंदिर जाके भैया लगाता टिका और कुमकुम लगाती मैया
अम्मा संग मैं लगा देती रंगोली और साफ-सुतरा आंगन
दिनभर सबका मिलना झुलना सबके मुंह पे खुशियां थी
आशिष मिलती सदा नई नोट रुपये भी बटवे मे छुपाना
गजरावाली लम्बी चोटीयां स्कर्ट को चुम झुमती थी
मैं मतवाली जबजब निकलु पडोशी किवांडसे झांके
पांच दिनकी दिवाली और चार दिन की चांदनी !
भारतकी याद दिलाती हां, नैनोके दीप दिवाली !
---रेखा शुक्ला